८ अक्रूर, १९५८

 

 मधुमयी मां, क्या मानव और अतिमानवके बीच कोई मध्य- वर्ती अवस्थाएं नहीं होंगी?

 

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शायद अनेक होंगी ।

मानव और अतिमानव? तुम नयी अतिमानसिक जातिकी बात ता नही कर रहे, कर रहे हो क्या? क्या सचमुच तुम उसीकी बात कर रहे हो जिसे हम अतिमानव कहते हैं, अर्थात्, मनुष्य, जो मानवी ढंगसे जन्मा है और अपनी भौतिक सत्ताका, जो उसे साधारण मानव जन्मके द्वारा मिली है, रूपांतर करनेकी कोशिश कर रहा है? सोपान? अवश्य, असंख्य आशिक उपलब्धियां होंगी । हर एककी क्षमताके अनुसार रूपांतरका स्तर अलग-अथग होगा, और यह निश्चित है कि अतिमानवसे मिलती-जुलती चीजतक पहुंचने- से पहले न्यूनाधिक सफल या असफल प्रयास काफी संख्यामें होंगे, और ये ही ल्डगभग सफल प्रयोगात्मक प्रयास होंगे ।

वे सब जो अपनी साधारण प्रकृतिपर विजय पानेकी कोशिश करते हैं, जो उन गहनतर अनुभूतियोंको भौतिक रूपमें ससिद्ध करनेकी कोशिश करने हैं जो उन्हें दिव्य 'सत्य' के संपर्कमें लें आयी हैं, जो अपनी दृष्टि 'परात्पर' और 'परम' की ओर मोड़नेके बजाय अपने अंदर उपलब्ध चेतनाके परि- वर्तनको भौतिक रूपमें, बाह्य रूपमें ससिद्ध करनेकी कोशिश करते है वे सब नौसिखिये अतिमानव है... । और उनके प्रयासकी सफलतामें अन- गिनता अंतर है । हर बार जब हम कोशिश करते हैं कि साधारण आदमी न रहे, साधारण जीवन न बितायें, अपनी हरकतोंमें, कार्य-कलापों ओर प्रतिक्रियाओमे दिव्य 'सत्य' को अभिव्यक्त करे; जब हम व्यापक अज्ञान- द्वारा शासित न होकर उस 'सत्य'द्वारा शासित होते है, तब हम शिक्षाथी अतिमानव होते है और अपने प्रयासोंका सफलताके अनुपातमें, कम या अधिक, अच्छे शिक्षार्थी होते है, पथपर कम या अधिक आगे बढे हुए ।

ये सब पड़ाव हैं, अतः... । मुख्यतः, जाननेकी बात तो यह है कि 'रूपांतर' की इस दौडसे दोनोंमेंसे कौन पहले पहुंचता है, वह जो दिव्य 'सत्य' के प्रतिरूपमें अपनी कायाको रूपातरित करना चाहता है या इस शरीरकी विकृत होते जानेकी पुरानी आदत, इतना विकृत कि आनी बाह्य संपूर्णतामें जीवित न रह सकें । यह होड है 'रूपांतर' और 'क्षय' के बीच । केवल दो ही चीजों है जो रुकनेके स्थल बन सकतीं है और बता सकती हैं कि व्यक्ति कहातक सफल हुआ है : या ती सफलता, यानी, अतिमानव बन जाना (तब, स्वभावतया, वह कह सकता है : ''अब मै मंजिलपर पहुंच गया हू ।',)... या फिर मृत्यु ।

सामान्यत: व्यक्ति ''मार्ग'' मे होता है ।

लक्ष्य-प्राप्ति या जीवनका अकस्मात् विच्छेद, इन दोनोंमेंसे एक चीज होतीं है जो आगेकी गतिका अस्थायी अंत ला देती है । और पथपर चलते हुएदोनों ही प्रायः कम या अधिक दूर होते हैं, लेकिन मजिलतक पहुंचे बिना कोई यह नहीं कह सकता कि वह किस सोपानपर है । अंतिम चरण- की ही गिनती होती है । अतः, जो अबसे सैकड़ों या हज़ारों साल बाद आयेगा और पीछेकी ओर देखेगा वही कह सकेगा : ''अमुक-अमुक सोपान था, अमुक-अमुक सिद्धि हुई थीं । ''... वह है इतिहास, यह घटनाका ऐतिहासिक अवबोधन होगा । तबतक हम सब गति और काममें लगे है ।

 

     कहा है, कहातक पहुंचे है और कहातक जाना है?... अच्छा होगा कि इस सबके बारेमें बहुत ज्यादा न सोचा जाय क्योंकि यह तुम्हें, पंगु बना देता है और तुम अच्छी तरह दौड नहीं सकते । केवल दौड़नेके बारेमें सोचना ही अच्छा है, और किसी चीजके बारेमें नहीं । अच्छी तरह दौड़नेके- का यही एक तरीका है । अपनी दृष्टि वही डालों जहां तुम्हें जाना है और सारा प्रयास आगे बढ़नेका क्रियामें लगा दो । तुम कहां हों, कहातक पहुंचे हो, इसकी चिंता करना तुम्हारा काम नहीं है । मैं कहती हू : ''यह इतिहास है,'' यह बादमें आयेगा । हमारे प्रयासके इतिहासकार हमें बतायेंगे (क्योंकि शायद हम तब भी होंगे), वे हमें बतायेंगे कि हमने क्या किया, कैसे किया... । फिलहाल आवश्यक है करना -- केवल यही एक महत्त्वपूर्ण चीज है ।

 

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